गुरुवार, 20 मई 2010

एक पहेली

इस पहेली को देखिये - (यहाँ क्लिक करें
मुझे तो जबाब नहीं आया, शायद आप जबाब दे सकें |

मंगलवार, 18 मई 2010

Dragon वश में


एक बच्चा है, बच्चे की बात कहाँ कोई मानता है, उसकी भी नहीं मानते कोई उसकी बात नहीं सुनता. वो अपने कई साल पुराने खानदान में ऐसा पहला है जो DRAGON को मार नहीं सकता, मौका मिलने पर भी नहीं | उसको खुद पर शर्म आती है, उसको डर लगता है कि लोग उसका मजाक बनायेंगे, पर कुछ ऐसा होता है कि लोग उसकी तारीफ करने लगते हैं, वह अपने पूरे खानदान में पहला ऐसा युवक बन जाता है जो dragon को अपना दोस्त बना लेता है, ठीक ऐसे ही जैसे हमने कई जानवरों को अपना मित्र बना लिया है | 
कहानी में कई मोड़ आते हैं, जो आपको बांधे रखते हैं, अंत में वह युवक (बच्चा) कुछ ऐसा करता है जो इंसानों और dragon दोनों के लिए अच्छा होता है, और इंसान और dragon हमेशा साथ साथ रहने लगते हैं | कहानी ख़त्म |
बच्चों के लिए बहुत दिनों बाद कोई अच्छी फिल्म आई है, पर इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि बड़ों को इस फिल्म में मजा नहीं आएगा | मेरी राय है कि आप जायें, साथ में अपने पूरे परिवार को भी ले कर जायें - आखिर मजा सब के साथ आता है :)

सोमवार, 10 मई 2010

संवेदना-शून्य समाज की ओर

कुछ समय पहले मेरे नाना-नानी मुंबई मेरे पास आये हुए थे. मैं उनको घुमाने के लिए अटरिया माल (साउथ मुंबई ) ले कर गया | वहां पर एक घटना घटी, जो मेरे लिए साधारण थी पर नानी जी के लिए असाधारण, मेरे लिए साधारण इसलिए थी क्यूंकि मैं शायद संवेदना हीन समाज का एक हिस्सा बन चुका हूँ या फिर ज्यादा समझदार हो चुका हूँ और समझता हूँ कि कभी कभी संवेदन हीनता भी बरतनी पड़ती है |

घटना
हुआ ये कि जब अटरिया माल मे प्रवेश किया तो guards ने metal-detectar से तलाशी ली, उनका तलाशी लेना मेरे लिए साधारण बात थी, मै समझता हूँ कि लगातार होती घटनाओं को रोकने के लिए इस तरह की भीड़ भरी जगह पर तलाशी लेने मे कोई बुरे नहीं है, पर नानी कैसे समझती, उनके साधारण से मन को यह बिलकुल भी बर्दास्त नहीं हुआ कि कोई उनकी तलाशी ले, ६८  बसंत पार कर चुकी नानी ने दूसरे के सोने को भी मिटटी ही समझा, उनका मन यह कैसे बर्दास्त करता कि कोई उन पर शक करे और तलाशी देने को कहे, छोटे शहरों में किसी की तलाशी लेने का मतलब उसको अपमानित करना होता है, और उनको यह सरासर अपमान लगा, उन्होंने गार्ड से यही कहा कि - 
"लला (बेटा) हम ऐसो कोई काम नाही करत है कि कोई हम पे ऊँगली ओ उठावे "
उनकी बात ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम आतंकवाद, अपराध इत्यादि को रोकने के लिए कुछ ऐसी व्यवस्था कायम कर रहे हैं जो हमें संवेदना शून्य बना रही है ? इस सवाल की तलाश में जब मैंने थोडा सा सोचना प्रारंभ किया तो मैंने पाया कि अगर पिछले 50 सालों पर नज़र डाली जाये तो अब हम लोग पहले के मुकाबले ज्यादा संवेदना-शून्य हो गए हैं.  
मैं अपनी बात को सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत कर रहा हूँ -
  • खबरें - आप आज का अखबार खोलिए, उसमे चोरी, बलात्कार, मारपीट इत्यादि दुखद घटनाएं मिलेंगी, पर क्या आप वाकई उन घटनाओं को पढ़ते हैं, और अगर पढ़ते भी है तो क्या अफ़सोस भी करते हैं ? शायद नहीं क्यूंकि यह अब आम बात हो गयी है, आजकल हमारे समाज में चोरी होना, बलात्कार होना आम बात हो गयी है, जैसे यह हमारे जीवन में शामिल ही हो, जब सुबह अखबार खोलते हैं तो हम यह मान कर ही चलते हैं कि इस तरह की घटनाएं तो होंगी ही, और कुछ नयी तरह की खबरों को अखबार में खोजते हैं, जबकि पहले ऐसा नहीं था, मुझे याद है कि आगरा में जब सुबह-सुबह घर पर अखबार आता था तो इस तरह की खबरों को खास तबज्जो डी जाती थी, इस पर बहस होती थी और बुरे काम करने बालों को कोसा जाता था, पर आज ऐसा नहीं है, हम संवेदना-शून्य समाज की ओर अग्रसर हो रहे हैं.

  • दुर्घटनाएं- मान लीजिये कि आप सड़क पर जा रहे हैं और आपके सामने एक भीड़ लगी हुई है, आप या तो रुकेंगे ही नहीं, और अगर रुकेंगे भी तो किसी से पूछेंगे कि क्या हुआ, जबाब मिलेगा कि दुर्घटना हो गयी है कुछ लोगों को बहुत चोट आई है,  आप अफ़सोस जताएंगे और अपने काम पर चले जायेंगे... क्या पहले ऐसा होता था ?

  • आवाजें - आप घर पर बैठे है, चाय पी रहे है, अचानक आपकी बिल्डिंग के नीचे से ambulance के siren सुनाई देते हैं, क्या आप बहार निकलते हैं, यह देखने के लिए को कहीं आपके पड़ोस की बिल्डिंग में ही आग तो नहीं लग गयी? क्या आपके मन में विचार आता है कि कुछ लोगो को आपकी मदद की जरूरत हो सकती है ?

कहीं ऐसा ना हो कि एक दिन हमारे अंदर की सारी संवेदना समाप्त हो जाये, और हम लोग दूसरों की परवाह करना ही छोड़ दें | हमेशा याद रखिये एक दिन हमको भी किसी की जरूरत पड़ सकती है, और जब हम किसी की मदद नहीं करते तो किसी और से उम्मीद भी नहीं कर सकते |

रविवार, 9 मई 2010

बदमाश कंपनी

 निर्देशक : परमीत सेठी
कलाकार : शाहिद कपूर, अनुष्का शर्मा, वीर दास, मियांग चांग, अनुपम खेर, पवन मल्होत्रा
फिल्म के बारे में : ठीक ठाक ( २ स्टार )

कहानी : 4 दोस्त हैं, 3 लड़के और एक लड़की, चारों को जल्दी है, अमीर बनने की.
करण (शाहिद कपूर) MBA नहीं करना चाहता, MBA करने के बाद JOB करनी पड़ेगी, सुबह 9:00 से 5:00 की JOB पसंद नहीं है | बिज़नस करना चाहता है, चंदू (वीर दास) को लड़कियों और फिल्मो का शौक है, जिंग (चांग) को शराब का शौक है और बुलबुल (अनुष्का) को मोडलिंग का |
शौक पूरा करने के लिए पैसा चाहिए, पैसा कैसे आएगा? स्मगलिंग से, ये लोग drugs की स्मगलिंग नहीं करते, Dollars की स्मग्लिंग करते हैं, खैर पैसा आता है, शौक पूरे होते है, लत बढ़ती जाती है, अब पैसा कमाने के लिए कपूर खुद नए-नए आईडिया बनता है और रुपये कमाता है. अब जब पैसा आएगा तो दिमाग भी ख़राब होंगे, चारोँ दोस्तों में लड़ाई हो जाती है, और सभी कपूर को छोड़ के चले जाते हैं, बिज़नस ख़त्म, पैसा ख़त्म, अब शुरु होते हैं बुरे दिन, पुलिस 420 के केस में कपूर को अन्दर करती है |
घटनाएं होती हैं, और अंत में सभी लोग मिल जाते हैं, बुरे दिन सुधर जाते है |

क्यूँ देखें : अगर आपको ठगी के नए नए आईडिया चाहिए तो |
क्यूँ ना देखें : फिल्म का दूसरा हिस्सा बहुत लम्बा कर दिया गया है, emotional scene पर हँसी आती है | ओवर एक्टिंग बहुत ज्यादा है, संवाद और घटनाएं एक दूसरे से गुंथी हुई नहीं है